गीता प्रेस, गोरखपुर >> हम ईश्वर को क्यों मानें हम ईश्वर को क्यों मानेंस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत है पुस्तक हम ईश्वर को क्यों मानें....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अन्य दर्शनों की अपेक्षा गीता में ईश्वरवाद विशेषरूप से आया है। न्याय,
वैशेषिक, योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा—ये छहों
दर्शन
केवल जीव के कल्याण के लिए ही हैं, परंतु इनमें ईश्वर का वर्णन मुख्यता से
नहीं हुआ है। इनमें से ‘न्यायदर्शन’ में
‘जो कुछ होता
है, वह सब ईश्वरकी इच्छा से ही होता है ’—इस तरह
ईश्वर का आदर
तो किया गया है, पर मुक्तिमें वह ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानता। वह इक्कीस
प्रकार के दुःखों के ध्वंस को ही मुक्ति बताता है।
‘वैशेषिकदर्शन’ में भी जीव के कल्याण के लिये ईश्वरकी
आवश्यकता न बताकर आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—इन तीनों
तापों
का नाश बताया गया है। ‘योगदर्शन’ में मुख्य रूप से
चित्तवृत्तियों के निरोध की बात आयी है। चित्तवृत्तियों के निरोध से
स्वरूप में स्थिति हो जाती है। हाँ, चित्तवृत्ति-निरोध में
ईश्वरप्रणिधान-(शरणागति-) को भी एक उपाय बताया गया है, पर इस उपाय की
प्रधानता नहीं है। ‘सांख्यदर्शन’ और
‘पूर्वमीमांसादर्शन’ तो जीव के कल्याण के लिये ईश्वर
की कोई
आवश्यकता ही नहीं समझते।
‘उत्तरमीमांसा’—(वेदान्तदर्शन-) में ईश्वर
की बात
विशेषरूप से नहीं आयी है, प्रत्युत जीव और ब्रह्म की एकता की बात ही
विशेषरूप से आयी है। वैष्णवाचार्यों ने भी ईश्वरकी विशेषता तो बतायी है,
पर जैसी गीता ने बतायी है, वैसी नहीं बतायी।
गीता में ईश्वर-भक्ति की बात मुख्यरूप से आयी है। अर्जुन जबतक भगवान के शरण नहीं हुए, तबतक भगवान् ने उपदेश नहीं दिया। जब अर्जुन ने भगवान् के शरण होकर अपने कल्याण की बात पूछी, तब भगवान ने गीता का उपदेश आरम्भ किया। उपदेश के अन्त में भी भगवान् ने ‘मामेकं शरणं व्रज’ (18/66) कहकर अपनी शरणागति को अत्यन्त गोपनीय और श्रेष्ठ बताया और अर्जुन ने भी ‘करिष्यते वचनं तव’ (18/73) कहकर पूर्ण शरणागति को स्वीकार किया।
गीतोक्त कर्मयोगमें भी ईश्वर की आज्ञा-रूप से ईश्वर की मुख्यता आयी है; जैसे ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ (2/47); ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ (2/48); ‘नियतं कुरु कर्म त्वम्’ (3/8); कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम्’ (4/15) आदि-आदि। ऐसे ही गीतोक्त ज्ञानयोग में भी ईश्वरकी अव्यभिचारिणी भक्ति को ज्ञान-प्राप्ति का साधन बताया गया है (13/10;14/26)।
गीता में ईश्वर-भक्ति की बात मुख्यरूप से आयी है। अर्जुन जबतक भगवान के शरण नहीं हुए, तबतक भगवान् ने उपदेश नहीं दिया। जब अर्जुन ने भगवान् के शरण होकर अपने कल्याण की बात पूछी, तब भगवान ने गीता का उपदेश आरम्भ किया। उपदेश के अन्त में भी भगवान् ने ‘मामेकं शरणं व्रज’ (18/66) कहकर अपनी शरणागति को अत्यन्त गोपनीय और श्रेष्ठ बताया और अर्जुन ने भी ‘करिष्यते वचनं तव’ (18/73) कहकर पूर्ण शरणागति को स्वीकार किया।
गीतोक्त कर्मयोगमें भी ईश्वर की आज्ञा-रूप से ईश्वर की मुख्यता आयी है; जैसे ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ (2/47); ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ (2/48); ‘नियतं कुरु कर्म त्वम्’ (3/8); कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम्’ (4/15) आदि-आदि। ऐसे ही गीतोक्त ज्ञानयोग में भी ईश्वरकी अव्यभिचारिणी भक्ति को ज्ञान-प्राप्ति का साधन बताया गया है (13/10;14/26)।
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